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कैलाश सत्यार्थी जी का आह्वान 

मेरी प्रिय बहनों और भाइयों,

आशा देश की आजादी के अमृत महोत्सव पर मैं आपसे भारत माता के चेहरे पर लगे एक गहरे धब्बे को मिटाने के लिए साथ आने का आह्वान कर रहा हूं। मुझे आप पर पूरा भरोसा है, क्योंकि बच्चों पर होने वाले अत्याचारों और अपराधों का अंत करने की मुहिम में पहले भी आप मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर हजारों मील चले हैं।

आज मैं आपसे जिस कलंक को मिटाने की बात कर रहा हूं वह बाल विवाह का है। यह सदियों से एक परंपरा और रिवाज के तौर पर चलता आ रहा है। वास्तव में तो, यह बच्चों के शरीर, मन और आत्मा को कुचलते रहने का एक ऐसा पाप है जिसे सामाजिक मान्यता मिल जाती है। यह बच्चियों को दुल्हन बनाकर उनसे घरेलू ग़ुलामी कराने और उनके साथ बलात्कार तथा उनके यौन शोषण का लाइसेंस दे देने जैसा काम है। ज्यादातर अबोध लड़कियां जान भी नहीं पातीं कि उनके हाथों में रची गई मेहंदी, पैरों का माहुर और शादी का जोड़ा ऐसी आग है जिसका धुँए उन्हें जिंदगी भर घुट-घुटकर मारता रहने वाला है।

मैंने बचपन में अपने पड़ोस में रहने वाली एक बाल विधवा महिला को देखा है। वे हमेशा सफेद साड़ी में अपना मुंडा हुआ सिर ढककर रहती थीं। उन्हें मोहल्ले में होने वाले शादी-ब्याह या जन्मदिन जैसे सभी शुभ कार्यों से दूर रखा जाता था। तीज-त्योहारों पर भी वे घर से नहीं निकलती थीं। लोग उनका तिरस्कार करते थे। वे हम जैसे बच्चों से प्यार के दो शब्द सुनने के लिए तरसती रहती थीं। मैंने एक बार उनसे पूछा कि आपके बच्चे कहां हैं, तो उन्होंने जवाब दिया, “बेटा, मेरी खुद की शादी आठ- नौ साल की उम्र में कर दी गई थी। मेरे पति मुझसे साल-दो साल बड़े थे जिन्हें भगवान ने जल्दी ही बुला लिया। बताओ इसमें मेरा क्या कसूर है?” मैं उनके शब्द, चेहरे का दर्द और सूनी आंखों को आज तक नहीं भूला हूं।” कई साल बाद मुझे मथुरा वृंदावन जाने का मौका मिला। वहां मंदिरों के आगे वैसी ही अनगिनत बहनों और माताओं को देखा, जो बेहद दयनीय हालत में दाने-दाने की मोहताज जैसे मौत के इंतजार में जीवन काट रही थीं।

कुछ वर्ष पहले की बात है। हमने असम से बहला-फुसलाकर लाई गई 16-17 साल की एक ऐसी बच्ची को हरियाणा के गांव से छुड़ाया था, जिसका निकाह एक आधे पागल आदमी से कर दिया गया था। लड़की की उम्र से तीन गुना बड़े उस आदमी और उसके बड़े भाई दोनों ने, उस लड़की को अपनी बीवी बनाकर रखा था। बाकी परिवार के लिए वह पूरे दिन काम करने वाली एक मुफ्त की नौकरानी थी। हमने उसे मुक्त कराया। छुड़ाए जाने के बाद उस बच्ची ने मुझसे कहा था, “मेरे अब्बू बेहद ग़रीब और अपाहिज हैं। मैं उन पर बोझ बनकर नहीं रहना चाहती थी। एक लड़का शादी का झांसा देकर मुझे दिल्ली ले गया। लेकिन उसने मुझे बीस हज़ार रुपये में बेच दिया। अब मैं घर लौटकर अब्बू को क्या मुँह दिखाऊँगी?”

हमने उसे किसी तरह समझा-बुझा कर उसके भाई के साथ घर भेज दिया था, लेकिन ऐसी बहुत सी लड़कियाँ आत्महत्या करने तक के लिए मजबूर हो जाती हैं। कई को शादी के बहाने ट्रैफ़िकिंग करके वेश्यावृत्ति में धकेल दिया जाता है। हमारे संगठन के साथियों ने दक्षिण भारत में ऐसी कई बच्चियों को बचाया है जिन्हें विदेशों से आए अमीर शेख निकाह के नाम पर ट्रैफ़िकिंग करके ले जाते थे।

पिछले सप्ताह की बात है। हमारे कार्यकर्ताओं ने 14 साल की एक बच्ची को जयपुर से मुक्त कराया। पिछले साल दिसंबर में उसकी मां के एक दोस्त ने धौलपुर जिले के किसी आदमी से तीन लाख रुपए लेकर, उस बच्ची की शादी करा दी थी। मुक्त कराए जाने के बाद उसने बताया, “ससुराल में मुझसे दिन भर गुलामों की तरह सारा काम कराया जाता था। जरा सी गलती हो जाने पर बुरी तरह मारा-पीटा जाता था। मेरे पति ने मेरे साथ कई बार बलात्कार किया, फिर भी मेरा गर्भ नहीं ठहरा। इसके लिए भी मुझे तरह-तरह की मानसिक यातनाएं दी गईं।”

साथियों, हमारे पूर्वजों ने बड़े त्याग और बलिदानों से आजादी हासिल करके 75 सालों में भारत को कई क्षेत्रों में दुनिया की पहली पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया है। आज हम जो कुछ भी हैं, उन्हीं की बदौलत हैं। परंतु उनके कई सपने और काम अभी तक अधूरे पड़े हैं। अगर हम नहीं, तो उन्हें और कौन पूरा करेगा?

हम पिछले 42 सालों से ग़ुलामी और बाल मजदूरी के खि़लाफ़ लड़ाई लड़ते हुए, स्वतंत्रता के इस यज्ञ में अपने जीवन की आहुति देने वाले शहीदों का सपना पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं। बच्चों को शिक्षा का अधिकार दिलाने में दशकों के आंदोलन के बाद मिली सफलता संविधान निर्माताओं को हमारी एक विनम्र श्रद्धांजलि थी। हमने महसूस किया कि मासूम बच्चों का यौन उत्पीड़न और बलात्कार बढ़ते जा रहे हैं। इसलिए हमने 'सुरक्षित बचपन- सुरक्षित भारत' मुहिम शुरू की। इसने सबका ध्यान खींचा और परिणामस्वरूप यह एक बड़ा मुद्दा बन सका। सामाजिक जागरूकता फैलने के साथ-साथ देश में कई नीतियां और सख्त क़ानून बने। न्यायपालिका की सक्रियता बढ़ी। यह समाज में चरित्र और नैतिकता को बचाने का प्रयास है। आज सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि बच्चों के साथ शोषण, उत्पीड़न और अपराध की घटनाओं में पिछले कुछ सालों में जो कमी आई थी, कोरोना की महामारी के चलते उसमें बहुत तेज़ी से वृद्धि होती दिख रही है। बाल विवाह भी उनमें से एक है। पिछले दो-ढाई सालों में हमारे युवा कार्यकर्ताओं ने कई गावों में बहुत से बच्चों की शादियां रूकवाई हैं।

हमारे देश में बाल विवाह के ख़िलाफ़ क़ानून हैं। बाल यौन शोषण और विवाह के बाद भी किसी बच्चे से शारीरिक संबंध बनाना एक कठोर दंडनीय अपराध है। इसके अलावा कई राज्यों की सरकारों ने लड़कियों के लिए ऐसी ढेरों लाभकारी सामाजिक सुरक्षा की योजनाएं चला रखी हैं, ताकि वयस्क होने तक उनका विवाह रुक सके। इन सबके के बावजूद 100 में से 23 लड़कियों का विवाह 18 साल की उम्र पूरी करने से पहले हो जाता है।

साथियों, मैं पूछता हूँ, आख़िर ये किसके बच्चे हैं? ये भारत माता की संतानें हैं। ये हमारी बेटियां है। ये हमारी बहनें हैं। इनकी सुरक्षा, स्वास्थ्य और उज्जवल भविष्य भी हमारी जि़म्मेदारी हैं।

गर्व और प्रेरणा की बात यह है कि आज हमारी अनेकों बेटियां इस अत्याचार को सहने के लिए तैयार नहीं हैं। वे उठ खड़ी हुई हैं। वे इसके खिलाफ आवाज़ उठा रही हैं। अपने माँ-बाप और रिश्तेदारों को चुनौती देते हुए वे अपनी और दूसरी बच्चियों के भी बाल विवाह रोक रही हैं। उसमें से बहुत सी ऐसी साहसी लड़कियाँ हैं, जिन्होंने पिता और भाइयों के ख़िलाफ़ पुलिस में शिकायत तक कर दी जो ज़बरदस्ती उनकी शादी करा रहे थे। उन्होंने सदियों पुराने स्त्री विरोधी रीति-रिवाज़ों, शर्म-संकोच और समाज तथा बिरादरी के डर के चक्रव्यूह को तोड़ा और सुरक्षित बाहर निकली हैं। उन्हीं में राजस्थान के हींसला गाँव की पायल, नीमड़ी की तारा बंजारा, झारखंड की काजल, राधा, दीपिका और राजकुमारी जैसी दर्जनों बेटियां हैं, जिन्होंने अपने गांवों में सामाजिक बदलाव का नया इतिहास रच डाला- एक उज्जवल और गर्वीला इतिहास। मैं उनकी बहादुरी को सलाम करता हूँ।

ऐसे उदाहरण भले ही कितने भी प्रेरणास्पद क्यों न हों, इस बुराई और अपराध को पूरी तरह ख़त्म करने के लिए काफ़ी नहीं हैं। इसके लिए सामाजिक चेतना के साथ-साथ बड़े पैमाने पर क़ानून का डर और कार्रवाई भी ज़रूरी है। इसीलिए हमने फ़ैसला किया है कि बाल-विवाह के ख़िलाफ़ एक देशव्यापी अभियान छेड़ा जाए। देश में बाल विवाह के मौजूदा 23 प्रतिशत के आंकड़े को घटाकर सन् 2025 के अंत तक 10 प्रतिशत तक लेकर आना, इस अभियान का पहला पड़ाव होगा। यह विश्व के इतिहास का सबसे विशाल, व्यापक और प्रभावी अभियान होना चाहिए।

हमारी योजना है कि देश के एक करोड़ नागरिकों की इसमें हिस्सेदारी हो। यह काम हमारे हज़ारों कार्यकर्ताओं और सैकड़ों सामाजिक संगठनों के अलावा युवाओं और महिलाओं के संगठन, ग्राम पंचायतों के पंच-सरपंच, स्थानीय नेता, धर्मगुरु, शिक्षक, बाल सुरक्षा समितियां और संस्थाएँ करेंगी। अभियान की शुरुआत 16 अक्टूबर सन् 2022 की ऐतिहासिक संध्या से की जाएगी। उस दिन 10 हज़ार गावों में लगभग 50 हज़ार महिलाओं और लड़कियों की अगुवाई में, ग्रामवासी बाल-विवाह के कलंक को ख़त्म करने की शपथ लेंगे। वे यह प्रतिज्ञा अपने-अपने हाथों में दीये, मोमबत्तियाँ या मशालें लेकर करेंगे।

बहनों और भाइयों, ज़रा उस दृश्य की कल्पना कीजिए, जब देश के हज़ारों गांवों में लाखों लोग अपने हृदय के भीतर संकल्प की आग और बाहर हाथों में रौशनी की लौ लेकर क़दम से क़दम मिलाकर साथ-साथ चलेंगे। 16 अक्टूबर की उस शाम, एक सूरज आसमान में अस्त हो रहा होगा तो दूसरा सूरज भारत की धरती से उग रहा होगा।

याद रखिए, दर्शक दीर्घा में बैठकर ताली बजाने वाले या आलोचना करने वाले लोग इतिहास नहीं रचते। इतिहास के निर्माता वे होते हैं, जो हिम्मत के साथ मैदान में कूद पड़ते हैं। आज मैं आपसे भारत के इतिहास में लिखे जा रहे इस स्वर्णिम अध्याय का साक्षी नहीं, बल्कि निर्माता बनने का आह्वान करता हूँ।

आपका साथी,

 

कैलाश सत्यार्थी

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